राजनैतिक हिस्सेदारी के सवाल पर हमें सामाजिक न्याय, अस्मिता, पहचान की राजनीति को करीब से देखना होगा।
डा अम्बेडकर,फूले, पेरियार की उत्तर भारत में वैचारिक, सामाजिक, राजनैतिक उपस्थित के पूर्व जो सामाजिक न्याय का आधुनिक विमर्श बना उसके मूल में जातिगत अस्पृश्यता का विरोध ,वंचितों को अवसर, शिक्षा का सामाजिक तौर हाशिए पर वर्गों को अवसर एवं पाखंड, अंधविश्वास के विरोध के साथ साथ उन वर्गों की सांस्कृतिक विरासत को सहेजना और वैज्ञानिकवादी चिंतन प्रमुख था।
जिसके लिए आरंभ में चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु,रामचरन मल्लाह, बौद्ध भिक्षु बोधानंद,स्वामी अछूतानंद हरिहर,छेदी लाल साथी, शिवदयाल चौरसिया जैसे पिछड़े व दलित वर्ग के नायक थे,(तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में शूद्र और गैर अधिकार प्राप्त वर्ग) इसमें बोधानंद अपवाद है जो कि ब्राह्मण थे हालांकि वह असामनतावादी ब्राह्मणवादी, सांस्कृतिक मूल्यों के मुखर विरोधी थे।
प्रारंभ में सामाजिक व्यवस्था में पीड़ित, शोषित,गैर अधिकार प्राप्त वर्गों को सामाजिक सामानता और आत्मसम्मान दिलाने की लड़ाई बाद में इन वर्गों को राजनीति व प्रशासन में हिस्सेदारी तक पहूंची। विदित है कि चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु ने इसके लिए काफी मशक्कत की।
जिज्ञासु समेत तमाम शूद्र वर्ग के सामाजिक आधार वाले नायकों ने तब “बैकवर्ड क्लासेज लीग” का गठन किया था 1930 में भारत के प्रमुख नेता महात्मा गांधी को इस बाबत उनके लखनऊ आगमन पर एक ज्ञापन भी सौंपा था। चूंकि बैकवर्ड क्लासेज लीग के अधिकतर नेता आदि हिंदू आंदोलन से निकले थे ,जिनका लक्ष्य था सामाजिक परिवर्तन और लोकतंत्र में निचले वर्गों की भागीदारी। इसलिए वे ब्राह्मणवाद, सामंतवाद और पूंजीवाद के जबरदस्त विरोधी थे। 1948 में शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन का पांचवां प्रांतीय सम्मेलन लखनऊ में हुआ सम्मेलन को डा अम्बेडकर ने सम्बोधित किया था जिसमें बड़ी तादाद में पिछड़ी जातियों (ओबीसी) के नेता भी शामिल थे।
बाबा साहब ने इस सम्मेलन में कहा था कि यह दुखद है कि दो ऐसे वर्ग जिनकी आवश्यकताए समान है,आपस में एक नहीं है।उन्होंने कहा कि इसका कारण यह है कि पिछड़े वर्ग के लोगों को यह डर है कि अनुसूचित जातियों से जुड़कर उनका स्तर भी उन्हीं के जैसे हो जाएगा। लेकिन,उनका डर गलत है ।वे अपना पृथक सामाजिक अस्तित्व बनाए रख सकते हैं , परन्तु उन्हें अपने पिछड़ेपन को दूर करने के लिए अनुसूचित जातियों के साथ मिलकर एक राजनैतिक पार्टी का गठन करने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए।
आशय यह है कि सामाजिक न्याय की राजनीति के शुरुआती समय से ही इसके केन्द्र में वंचित समूहों की एकता एवं प्राकृतिक ,मानवीय अधिकारों को प्राप्त करना रहा है जिसमें कमोबेश वंचित समूहों की सामूहिक भागीदारी को साफ देखा जा सकता है
70 के दशक में जब जातीय पहचान और चेतना की राजनीति की राजनीति का उभार नही हुआ तब सामाजिक न्याय की राजनीति और व्यापक सामाजिक परिवर्तन के लिए उत्तर भारत में रामस्वरूप वर्मा, महराज सिंह भारती,ललई सिंह यादव,कर्पूरी ठाकुर के वैज्ञानिकवादी चिंतन और प्रयासों ने पिछड़े समाज को प्रगतिशीलता और आत्मसम्मान के मूल्यों के साथ भागीदारी प्राप्त करने का आह्वान किया।
इसी दौरान समाजवादी आंदोलन धारा ने उत्तर भारत की कामगार जातियो को करीब से छूआ और सामाजिक न्याय के सवाल पर डा लोहिया और महराज सिंह भारती ने एक स्पष्ट रेखा खींच कर भारतीय राज्य निर्माण में वंचितो की हिस्सेदारी के सवाल को जरूरी मानकर उनके प्रति प्रतिबद्धता जताई। डा लोहिया हिंदू समाज,जाति,वर्ण, सामाजिक न्याय और संस्कृति और भावना के सवाल पर तत्कालीन समय में काफी प्रगतिशील माने जा सकते हैं। 1957 में बनारस में दिए गए भाषण में स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि “अब मैं ऐसे मुद्दे पर बोलना चाहता हूँ जिसका ताल्लुक आमतौर पर धर्माचार्यों से है लेकिन जब से वे ग़ैरज़रूरी और बेकार बातों में लिप्त हो गये हैं, इससे विरत हैं. जहाँ तक मेरा सवाल है, यह साफ़ कर दूँ कि मैं एक नास्तिक हूँ. किसी को यह ग़लतफ़हमी न हो कि मैं ईश्वर पर विश्वास करने लगा हूँ।
आज के और अतीत के भी भारत की जीवन-पद्धति, दुनिया के दूसरे देशों की ही तरह, लेकिन और बड़े पैमाने पर, किसी न किसी नदी से जुड़ी रही है. राजनीति की बजाय अगर मैं अध्यापन के पेशे में होता तो इस जुड़ाव की गहन जाँच करता. राम की अयोध्या सरयू के किनारे बसी थी. कुरु, मौर्य और गुप्त साम्राज्य गंगा के किनारों पर फले-फूले, मुग़ल और शौरसेनी रियासतें और राजधानियाँ यमुना के किनारों पर स्थित थीं. साल भर पानी की ज़रूरत एक वजह हो सकती है, लेकिन कुछ सांस्कृतिक वजहें भी हो सकती हैं. एक बार मैं महेश्वर नाम की जगह में था जहाँ कुछ समय के लिए अहल्या ने एक शक्तिशाली शासन स्थापित किया था. वहाँ ड्यूटी कर रहे संतरी ने यह पूछकर मुझे दंग कर दिया कि मैं किस नदी का हूँ. यह दिलचस्प सवाल था क्योंकि मेरी भाषा, मेरे शहर या मेरे क़स्बे के बारे में पूछताछ करने की बजाय उसने मुझसे मेरी नदी के बारे में पूछा. सभी बड़े साम्राज्य नदी-तटों पर बसते आए हैं, – चोल, पांड्य और पल्लव साम्राज्य क्रमशः कावेरी, व्यगीर और पालर नदियों के किनारों पर थे।
हमारे देश की कुल चालीस करोड़ की आबादी में से तक़रीबन एक या दो करोड़ लोग रोज़ाना नदियों में डुबकी लगाते हैं और पचास से साठ लाख लोग नदी का पानी पीते हैं. उनके दिल और दिमाग़ नदियों से जुड़े हुए हैं. लेकिन नदियाँ शहरों से गिरने वाले मल और अवजल से प्रदूषित हो गयी हैं. गंदा पानी ज़्यादातर फैक्ट्रियों का होता है और कानपुर में ज़्यादातर फैक्ट्रियां चमड़े की हैं जो पानी को अब और भी नुक़सानदेह बना रही हैं. फिर भी हज़ारों लोग यही पानी पीते हैं, इसी में नहाते हैं. साल भर पहले इस दिक़्क़त पर कानपुर में मैं बोला भी था।
क्या हमें नदियों के प्रदूषण के ख़िलाफ़ एक आंदोलन शुरू करना चाहिए? अगर ऐसा आंदोलन सफल हो जाय तो अकूत धन की बचत भी हो पायेगी. अवजल को शोधित करके गंगा या कावेरी में ही डाल देने की बजाय ड्रेन पाइपों के ज़रिये उन्हें नदी से दस-बीस मील दूर ले जाया जाय और मैदानों में छोड़ा जाय. इस जगह पर खाद बनाने की फैक्ट्री खोली जा सकती है. देखने में यह ख़र्चीला लगता है. लेकिन समूची दृष्टि को क्रांतिकारी तरीक़े से बदलना होगा. ख़र्च करोड़ों में होगा लेकिन सरकार पंचवर्षीय योजनाओं में २२०० करोड़ रूपये सालाना क्या नहीं ख़र्च कर दे रही है? मुमकिन है, कुछ अन्य परियोजनाओं के अमल को टालना पड़े. लेकिन ऐसी योजना को लागू करने के रास्ते में आने वाले अवरोधों को भी मैं जानता हूँ. हमारे वर्तमान शासक और भविष्य में शासक बनने के आकांक्षी जन नक़ली और सतही तौर- तरीक़ों से देश का यूरोपीयकरण कर डालने के बारे में सोचते हैं. और आज के शासक हैं कौन? वे एक लाख होंगे, या इससे भी कम, जो ज़रा-सी अंग्रेज़ी जानते हैं. वे जानते हैं कि छुरी-काँटे का इस्तेमाल कैसे किया जाता है और टाई और कोट कैसे पहनना चाहिए. उन्होंने एक ताक़तवर संसार बना लिया है और उनके नेता हैं पंडित नेहरू. श्री संपूर्णानंद भी उसी संसार का प्रतीक हैं, हालाँकि अपने कपड़े-लत्ते से वह यूरोपियन नहीं लगते लेकिन अगर श्रीयुत नेहरू को अमेरिका जाना हो तो वहाँ वह भी ऐसी ही शख्सियतों में गिने जायेंगे।
शहर बनारस में भगवान विश्वनाथ को लेकर आंदोलन चला है. अब उनका एक नया मंदिर भी बनाया जा रहा है. दरअसल यह आंदोलन भगवान विश्वनाथ के लिए था ही नहीं. संघर्ष तो ब्राह्मणों के देवता और चमारों के देवता के बीच था. हिन्दू मानस बेकार ही फालतू मामलों में उलझा रहता है. अगर सिर्फ़ करपात्री जी ने उस अंदाज़ में काम कर दिखाया होता जिसका संकेत मैंने किया है, तो समस्या सुलझ गयी होती. लेकिन करपात्री जी कौन सी दुनिया की नुमाइंदगी करते हैं. वे राजस्थान के धनकुबेरों और घनघोर सामंतों के प्रतिनिधि हैं. एक की बजाय दो विश्वनाथ मंदिर बनवा देने से कोई समाधान नहीं होगा. ज़रूरत पूरे देश की पुनर्रचना और गरीबी के उन्मूलन की है।
आज हमारी सेना के जवान कौन हैं? ये ग़रीब के बेटे हैं और वे लोग हैं जो जान देते हैं. ये वे हैं जो देहरादून और सैंडहर्स्ट के नक़ली माहौल में प्रशिक्षित अधिकारियों के हुक्म की तामील करते हैं. अफसर समृद्ध वर्गों के हैं. वे आधुनिक विश्व के नुमाइंदे हैं. वे क्यों इस देश के लाखों लोगों के लिए दिक हों? उनके पास भारतीय दिमाग़ है भी नहीं. अगर ऐसा होता तो नदियों की सफ़ाई की योजनाएँ आज बिल्कुल तैयार होतीं. मैं चाहता हूँ कि पार्टी से बाहर के लोग बैठकें करने, जुलूस निकालने और संगोष्ठियाँ आयोजित करके सरकार को नदी-प्रदूषण-निवारण परियोजनाओं को उठाने के लिए बाध्य करने की ख़ातिर सोशलिस्ट पार्टी से हाथ मिला लें. हमें ख़ुद भी इस संकल्प के साथ तैयार रहना होगा कि यदि तीन से छह महीने के भीतर अवजल के प्रवाह को मैदानों की ओर नहीं मोड़ा गया तो हम वर्तमान ड्रेनेज सिस्टम को तोड़ देंगे और इस तोड़फोड़ में किसी किस्म की हिंसा नहीं होगी।
कबीर ने कहा है:
माया महाठगनि मैं जानी
केशव की कमला बन बैठी,
शिव के भवन भवानी
पंडा की मूरत बन बैठी,
तीरथ में भई पानी
तीर्थ में क्या है? – सिर्फ़ पानी. तो लोगों को सरकार को डाँटना चाहिए, ‘तुम बेशर्म लोग, बंद करो यह मलिनता.’ मैं तो फिर भी नास्तिक हूँ. मेरे लिए सवाल तीर्थ का नहीं है, यह है कि हमारा देश तीस लाख लोगों का है कि चालीस करोड़ का “
इसलिए यह आरोप महज बेबुनियादी और बचकाना है कि सामाजिक न्याय की राजनीति और सामाजिक परिवर्तन की वैज्ञानिक आधार वाली धारा का परिणाम सिफर रहा या इसका लाभ सामाज के कुछ हिस्सों तक पहूंचा यह महज वंचित वर्गों के बीच अतीत से रही वैचारिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक सहयोग की परस्पर भावना को तोड़ने का षणयंत्र है।
लेख – मनोज पासवान