भारत अपने 75 साल के लोकतांत्रिक अस्तित्व का जश्न मना रहा है. केंद्र सरकार ने इसे ‘अमृत महोत्सव’ का नाम दिया है. आम तौर पर वैश्विक बोलचाल में यह भारत की स्वतंत्रता की ‘डायमंड जुबली’ यानी हीरक जयंती है।
लेकिन कौन सी आजादी मनाएं? जाति के आधार पर मनाएं या धर्म के आधार पर मनाएं या उन लाखों करोड़ आदिवासियों व दलितों को कुचल देने की आजादी – असमानता और बढ़ती घृणा की आजादी….या राजस्थान के सरस्वती शिशु मंदिर स्कूल में हुई घटना की आजादी…कौन सी आजादी?
एक चार साल का मासूम दलित बच्चा शिक्षक द्वारा इसलिए मार दिया गया क्योंकि उसने मटकी छूकर पानी पी लिया था। दरअसल, ये देश आज भी अपनी कबीलियाई संस्कृति से आजाद नहीं हुआ है। वही जाहिलियत और वही बर्बरता और खून के कतरे-कतरे में समाया जाति व धर्म का जहर।
इस जहर पर चांदी का वर्क चढ़ाया गया है जिस पर लिखा है वसुधैव कुटुंबकम्…यंत्र नारियस्तु पूज्यंते… प्राणियों में सद्भाव हो….अधर्म का नाश हो…ये छुहारे हैं जिसे उछाल उछाल कर हम अपने को सभ्य समाज दिखाने की कोशिश करते हैं, जो हैं नहीं।
शोषण की व्यवस्था है जाति
हमारे देश में शोषण की ऐसी ही व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हथियार है जाति व्यवस्था, जो शोषितों को अपने उत्थान के अवसरों तथा साधनों से महरूम कर देती है।
सदियों की जाति व्यवस्था ने जहाँ शोषित जातियों को आर्थिक और सामाजिक तौर पर पिछड़ा बनाया, वहीं जाति को धर्म और अलौकिक शक्ति से जोड़, इसके खिलाफ विरोध के स्वरों को भी शक्तिविहीन कर दिया।
अपने दुःख-दर्द से त्रस्त इंसान, इंसानी शोषण के खिलाफ तो लड़ने की सोच सकता है, परन्तु जब शोषण का यह विधान ब्रह्मा जी ने रचा हो और उनके पुत्र मनु ने इसका पालन करने के लिए दंड संहिता बनाई हो, तो इसका विरोध कैसा? इस मकड़जाल को जो हथियार तोड़ सकता था उस शिक्षा से तो विशेष तौर पर दलितों और आदिवासियों को दूर ही रखा गया।
केवल दूर ही नहीं रखा गया परन्तु कभी सम्बूक वध के जरिये आदर्श समाज (राम राज्य) में भी इसके पालन न करने वालों के खिलाफ हिंसा के हथियार को जायज ठहराया गया, तो कभी एकलव्य का अंगूठा काटने के जरिये एकलव्य रुपी वंचित समाज के ऊपर ही इसको मानने की नैतिक जिम्मेदारी डाली गई।
मनु स्मृति पर संविधान की विजय
हालाँकि इसके बावजूद दलित, आदिवासी और अन्य पिछड़ा वर्ग ने समय-समय पर न केवल जाति को चुनौती दी पर मनु के विधान से भी टक्कर ली। इन लड़ाइयों का लम्बा और गौरवशाली इतिहास है और इन सभी लड़ाइयों की ही देन है आज़ाद भारत में हमारे संविधान में सामाजिक गैबराबरी को चिन्हित करना और इससे लड़ने के लिए सामाजिक तौर पर पिछड़े समुदायों के लिए विशेष प्रावधान किया जाना।
सबसे प्रमुख बात यह है कि आज़ाद भारत ने गैरबराबरी के मूल मनु की दंड सहिता को दरकिनार कर सब नागरिको को समान देखने वाला कानून अपनाया। हमारे देश के कानून की नज़र में सभी नागरिक चाहे वह किसी भी जाति या धर्म के हो, बराबर हैं।
यह कोई छोटी बात नहीं थी, एक ऐसे देश में जहाँ सदियों तक इस ब्राह्मणवादी सोच को स्थापित करने के लिए काम किया गया हो, आज़ादी के बाद भी आरएसएस और इसके संगठनों ने मनु स्मृति को ही देश का कानून बनाने की वकालत की हो।
वहां मनुस्मृति को जलाने वाले डॉ. बी आर अंबेडकर न केवल संविधान सभा की ड्राफ्टिंग कमिटी के अध्यक्ष बने, बल्कि देश ने समानता का कानून अपनाया। परन्तु इसका मतलब यह नहीं कि देश से जातिवाद ख़त्म हो गया या मनुवाद गए ज़माने की बात हो गई।
आज भी सक्रीय है द्रोणाचार्य
मसलन, हमारे देश में संविधान की ताकत के चलते आज कोई भी दलित, आदिवासी या अन्य पिछड़ा वर्ग के छात्रों को किसी शिक्षण संस्थान में दाखिल होने से आधिकारिक तौर से नहीं रोक सकता है, परन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि वर्तमान में द्रोणाचार्य नहीं है।
आज़ाद भारत में न केवल मनुवादी द्रोणाचार्य है बल्कि वह आज भी एकलव्य का अंगूठा लेकर उसे शिक्षा, विशेष तौर पर उच्च शिक्षा से, महरूम कर रहें है। यह बात अलग है कि उनका तरीका बदल गया है।
देश में लगातार बढ़ रही शिक्षा की कीमत इसी तरह का एक साधन है जो वंचित समुदायों के छात्रों का अंगूठा काटने का आजमाया तरीका है। परन्तु हम यहाँ इस पर चर्चा नहीं कर रहे हैं कि उच्च शिक्षा विशेष तौर पर शोध छात्रों द्वारा सामना किये जाने वाले जातिवादी हथकंडो की बात कर रहें है।
पिछले दिनों देश के सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय जहां तुलनातमक तौर पर बाकियों से स्थिति बेहतर है, वहां से खबर आई कि पीएचडी में प्रवेश लेने के लिए छात्रों को मौखिक परीक्षा में बहुत कम अंक मिले और लिखित परीक्षा में अच्छे अंक आने के वावजूद आरक्षित समुदाय के छात्रों को प्रवेश नहीं मिल पाया। उच्च शिक्षा से छात्रों को महरूम करने के लिए आज के द्रोणाचार्यों का यह नया तरीका है।
उच्च शिक्षा से महरूम करने का नया हथियार बन रहा है मौखिक परीक्षा
आरक्षण के प्रावधान होने के वावजूद उच्च शिक्षा से वंचित जातियों के छात्रों को महरूम करने के लिए वायवा का इस्तेमाल मुख्य तौर पर होता है। इसे बड़े ध्यान से समझने की जरुरत है कि किस तरह यह देश के विभिन्न उच्च शिक्षण संस्थानों में बेरोक टोक और बिना किसी प्रतिरोध के जारी है।
यह जेएनयू ही है जहाँ जनवादी आंदोलन होने के कारण यह नज़र में ही नहीं आता, बल्कि इसका विरोध भी होता है। हालाँकि वायवा के मुद्दे पर देश में काफी चर्चा हुई है। इसमें भेदभाव होता है और पूर्वाग्रहों से ग्रसित होकर वंचित जातियों के छात्रों को लिखित परीक्षा में अच्छे अंक हासिल करने के वावजूद वायवा (मौखिक परीक्षा) में कम अंक दिए जाते हैं।
जेएनयू में तो इस मसले पर तीन कमेटिया गठित की गई हैं। पहली कमेटी 2012 में राजीव भट्ट के नेतृत्व में, दूसरी 2013 में एस के थोराट के नेतृत्व में और तीसरी 2016 में अब्दुल नफे के नेतृत्व में बनी। अब्दुल नफे कमेटी ने 2012 से 2015 के बीच दाखिले के रिकॉर्ड का अध्ययन करने के बाद सिफारिश दी कि वायवा के अंक 30 से घटाकर 15 कर देने चाहिए।
इधर छात्र मौखिक परीक्षा के अंक घटाने के जरिये शोध में दाखिले की प्रक्रिया में ब्राह्मणवादी हस्तक्षेप को रोकने की लड़ाई लड़ रहे थे, उतने में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग बिलकुल ही विपरीत दिशा में जाते हुए एक तर्क विहीन नियम लेकर आया।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (एम0फिल0/पीएच0डी0 उपाधि प्रदान करने हेतु न्यूनतम मानदंड और प्रक्रिया) विनियम, 2016 (University Grant Commission (Minimum Standards and Procedure for award of MPhil./PhD. Degree) Regulation 2016 ) में शोध डिग्री में प्रवेश के लिए वायवा को 100 प्रतिशत वेटेज दी गई थी। इसके लागू होने का मतलब था कि viva के जरिये अध्यापकों को खुली छूट।
इस फैसले का चौतरफा विरोध हुआ। स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ़ इंडिया (SFI) इसके खिलाफ अदालत में गया और 1 अक्टूबर, 2018 को दिल्ली उच्च न्यायालय ने स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया एंड अन्य बनाम यूनियन ऑफ इंडिया और अन्य में यूजीसी की अधिसूचना से इस प्रावधान को हटाने का आदेश दिया गया।
इसके साथ ही आरक्षित श्रेणी के छात्रों के लिए लिखित परीक्षा में न्यूनतम अंको में भी छूट देने के लिए यूजीसी को निर्देश दिए गए। यह एक बड़ी जीत थी जिससे भविष्य में आने वाले खतरे को रोक दिया गया, परन्तु वर्तमान में हो रहे अन्याय के खिलाफ भी हमें लगतर लड़ना होगा।
मनु के ब्राह्मणवाद से छुटकारा नहीं दिलवाया जा सकता है
यह सर्वविदित तथ्य है कि मौखिक परीक्षा और इंटरव्यू में तुलनात्मक ज्यादा अंक प्रतिशत जाति आधारित पूर्वाग्रहों से भरे हमारे समाज में ज़्यदातर भेदभाव का कारण बनता है।
हम जानते हैं कि लिखित अंक लाने के वावजूद वायवा में आरक्षित श्रेणी के उम्मीदवारों को कम अंक दिए जाते हैं ताकि वह अंतिम सूची में सामान्य श्रेणी में न आ जाएं। इसी तरह की प्रक्रिया की बातें नौकरी के लिए प्रतियोगी परीक्षा में इंटरव्यू के दौरान सामने आई हैं, जब कम अंक दिए जाते हैं, ताकि एससी/एसटी के प्रार्थियों को छोटे रैंक पर नौकरी मिले।
हालाँकि वायवा के ऊँचे अंक प्रतिशत पर, विशेष तौर पर शिक्षण संस्थानों में प्रवेश के लिए, न्यायालयों ने कड़ी टिपण्णी की है। लेकिन फिर भी हमारे देश के शिक्षण संस्थानों में यह आधुनिक द्रोणाचार्य बेखौफ अपना काम कर रहे हैं।
जरुरत इस बात की है कि मौखित परीक्षा में अंको को कम करने, उनको लिखित परीक्षा के अंको से जोड़ने, वायवा में अंक देने के लिए ठोस मापदंड तय जाये और इसके जरिये अध्यापकों के पक्षपात को कम करने के लिए एक मज़बूत आंदोलन विकसित किया जाये।
शिक्षा परिसरों का जनवादीकरण और छात्रों, अध्यापकों, कुलपतियों और अन्य उच्च पदों में वंचित समुदायों का प्रतिनिधित्व बढ़ाने के बिना शिक्षण संस्थानों को मनु के ब्राह्मणवाद से छुटकारा नहीं दिलवाया जा सकता है।