डेबुजी झिंगराजि जानोरकर साधारणतः संत गाडगे महाराज और गाडगे बाबा के नाम से जाने जाते थे, वे एक समाज सुधारक और घुमक्कड भिक्षुक थे जो महाराष्ट्र में सामाजिक विकास करने हेतु साप्ताहिक उत्सव का आयोजन करते थे. उन्होंने उस समय भारतीय ग्रामीण भागो का काफी सुधार किया और आज भी उनके कार्यो से कई राजनैतिक दल और सामाजिक संस्थान प्रेरणा ले रहे है.
प्रारंभिक जीवन : उनका वास्तविक नाम देवीदास डेबुजी था. महाराज का जन्म महाराष्ट्र के अमरावती जिले के अँजनगाँव सुरजी तालुका के शेड्गाओ ग्राम में एक धोबी परिवार में हुआ था. वे एक घूमते फिरते सामाजिक शिक्षक थे, वे पैरो में फटी हुई चप्पल और सिर पर मिट्टी का कटोरा ढककर पैदल ही यात्रा किया करते थे. और यही उनकी पहचान थी. जब वे किसी गाँव में प्रवेश करते थे तो वे तुरंत ही गटर और रास्तो को साफ़ करने लगते. और काम खत्म होने के बाद वे खुद लोगो को गाँव के साफ़ होने की बधाई भी देते थे. गाँव के लोग उन्हें पैसे भी देते थे और बाबाजी उन पैसो का उपयोग सामाजिक विकास और समाज का शारीरिक विकास करने में लगाते. लोगो से मिले हुए पैसो से महाराज गाँवो में स्कूल, धर्मशाला, अस्पताल और जानवरो के निवास स्थान बनवाते थे।
गाँवो की सफाई करने के बाद शाम में वे कीर्तन का आयोजन भी करते थे और अपने कीर्तनों के माध्यम से जन-जन तक लोकोपकार और समाज कल्याण का प्रसार करते थे. अपने कीर्तनों के समय वे लोगो को अन्धविश्वास की भावनाओ के विरुद्ध शिक्षित करते थे. अपने कीर्तनों में वे संत कबीर के दोहो का भी उपयोग करते थे.संत गाडगे बाबा सच्चे निष्काम कर्मयोगी थे। महाराष्ट्र के कोने-कोने में अनेक धर्मशालाएँ, गौशालाएँ, विद्यालय, चिकित्सालय तथा छात्रावासों का उन्होंने निर्माण कराया।
यह सब उन्होंने भीख माँग-माँगकर बनावाया किंतु अपने सारे जीवन में इस महापुरुष ने अपने लिए एक कुटिया तक नहीं बनवाई। धर्मशालाओं के बरामदे या आसपास के किसी वृक्ष के नीचे ही अपनी सारी जिंदगी बिता दी। गुरुदेव आचार्यजी ने ठीक ही बताया है कि एक लकड़ी, फटी-पुरानी चादर और मिट्टी का एक बर्तन जो खाने-पीने और कीर्तन के समय ढपली का काम करता था, यही उनकी संपत्ति थी। इसी से उन्हें महाराष्ट्र के भिन्न-भिन्न भागों में कहीं मिट्टी के बर्तन वाले गाडगे बाबा व कहीं चीथड़े-गोदड़े वाले बाबा के नाम से पुकारा जाता था। उनका वास्तविक नाम आज तक किसी को ज्ञात नहीं है।
महाराष्ट्र सहित समग्र भारत में सामाजिक समरता, राष्ट्रीय एकता, जन जागरण एवं सामाजिक क्रानित के अविरत स्रोत के उदवाहक संत गाडगे बाबा का जन्म 23 फरवरी सन 1876 को महाराष्ट्र के अकोला जिले के खासपुर गाव त्रयोदशी कृष्ण पक्ष महाशिवरात्री के पावन पर्व पर बुधवार के दिन धोबी समाज में हुआ था। बाद में खासपुर गाव का नाम बदल कर शेणगाव कर दिया गया। गाडगे बाबा का बचपन का नाम डेबूजी था। संत गाडगे के देव सदृश सन्दर एवं सुडौल शरीर, गोरा रंग, उन्नत ललाट तथा प्रभावशाली व्यकितत्व के कारण लोग उन्हें देख कह कर पुकारने लगे कालान्तर में यही नाम अपभ्रश होकर डेबुजी हो गया।
इस प्रकार उनका पूरा नाम डेबूजी झिंगराजी जाणोरकर हुआ। उनके पिता का नाम झिंगरजी माता का नाम सााखूबार्इ और कुल का नाम जाणोरकर था। गौतम बुद्व की भाति पीडि़त मानवता की सहायता तथा समाज सेवा के लिये उन्होनें सन 1905 को ग्रहत्याग किया एक लकडी तथा मिटटी का बर्तन जिसे महाराष्ट्र में गाडगा (लोटा) कहा जाता है लेकर आधी रात को घर से निकल गये। दया, करूणा, भ्रातभाव, सममेत्री, मानव कल्याण, परोपकार, दीनहीनों के सहायतार्थ आदि गुणों के भण्डार बुद्व के आधुनिक अवतार डेबूजी सन 1905 मे ंग्रहत्याग से लेकर सन 1917 तक साधक अवस्था में रहे।
डेबू जी हमेशा अपने साथ मिट्टी के मटके जैसा एक पात्र रखते थे। इसी में वे खाना भी खाते और पानी भी पीते थे। महाराष्ट्र में मटके के टुकड़े को गाडगा कहते हैं। इसी कारण कुछ लोग उन्हें गाडगे महाराज तो कुछ लोग गाडगे बाबा कहने लगे और बाद में वे संत गाडगे के नाम से प्रसिद्ध हो गये। गाडगे बाबा डा. अम्बेडकर के समकालीन थे तथा उनसे उम्र में पन्द्रह साल बड़े थे। वैसे तो गाडगे बाबा बहुत से राजनीतिज्ञों से मिलते-जुलते रहते थे। लेकिन वे डा. आंबेडकर के कार्यों से अत्यधिक प्रभावित थे।
इसका कारण था जो समाज सुधार सम्बन्धी कार्य वे अपने कीर्तन के माध्यम से लोगों को उपदेश देकर कर रहे थे, वही कार्य डा0 आंबेडकर राजनीति के माध्यम से कर रहे थे। गाडगे बाबा के कार्यों की ही देन थी कि जहाँ डा. आंबेडकर तथाकथित साधु-संतों से दूर ही रहते थे, वहीं गाडगे बाबा का सम्मान करते थे। वे गाडगे बाबा से समय-समय पर मिलते रहते थे तथा समाज-सुधार सम्बन्धी मुद्दों पर उनसे सलाह-मशविरा भी करते थे। डा. आंबेडकर और गाडगे बाबा के सम्बन्ध के बारे में समाजशास्त्री प्रो. विवेक कुमार लिखते हैं कि ‘‘आज कल के दलित नेताओं को इन दोनो से सीख लेनी चाहिए।
विशेषकर विश्वविद्यालय एवं कालेज में पढ़े-लिखे आधुनिक नेताओं को, जो सामाजिक कार्यकर्ताओं तथा समाज-सुधार करने वाले मिशनरी तथा किताबी ज्ञान से परे रहने वाले दलित कार्यकर्ताओं को तिरस्कार भरी नजरों से देखते हैं और बस अपने आप में ही मगरूर रहते हैं। क्या बाबा साहेब से भी ज्यादा डिग्रियाँ आज के नेताओं के पास है? बाबा साहेब संत गाडगे से आंदोलन एवं सामाजिक परिवर्तन के विषय में मंत्रणा करते थे।
एक दिन ढेबु जब खेत के अनाज की फसल पर बैठे पक्षियों को भगाते होते हैं, उस समय वहां से एक साधू गुजरता हैं। साधू उसकी हरकत को बड़े कुतुहल से देखता है। वह ढेबु से पूछता है, क्या वह उस अनाज का मालिक है ? ढेबु को एकाएक जैसे बोध होता है। वह क्या है, कौन है…..जगत क्या है… समाज क्या है ? और फिर, ढेबु घर छोड़ देता है। वह निकल पड़ता है, इन सब सवालों के उत्तर जानने। वह पैदल यात्रा करता है। एक गाँव फिर, दूसरा गाँव। तीसरा गाँव…चौथा,पांचवा। वह निरंतर चलता है। और फिर, उसके हाथ में आती है- झाड़ू।
उसकी खोज पूरी होती है-झाड़ू से। वह इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि उसके आस-पास जैसा है, ठीक नहीं है। सफाई की जरुरत है। लोगों की, उनके घर-परिवार की। उनके दिमाग के नालियों की। वह झाड़ू पकड़ता है और शुरू हो जाता है। लोगों के घर के सामने गन्दी नालियों की सफाई करने। ढेबु के अनुसार ये कीचड़ से भरी गन्दी नालियां ही हैं, जो लोगों की सोच को गन्दा रखती है। अगर, लोगो के घर-आँगन के सामने की इन गन्दी और बदबूदार नालियों की सफाई की जाए तो हो सकता है, लोगों की सामाजिक सोच बदले ? इसकी चिंता किये बगैर कि लोग क्या सोचेंगे, ढेबु अपने काम में लग जाते हैं।
ढेबु ने अपने पास कटोरे-नुमा एक मिटटी का पात्र रख लिया था। वे गाँव-घरों के आस-पास जहाँ कहीं गन्दगी देखते, झाड़ू लेकर शुरू हो जाते। इस दौरान अगर कोई उन्हें खाने के कुछ देता तो उसे वे अपने मिटटी के पात्र में ले लेते। कुछ लोग इसके एवज में ढेबु को पैसा भी देने लगे। ढेबु इसमें से थोड़े पैसे अपने पास रख लेते और अधिकांश गावं के मुखिया को यह कर लौटा देते कि ये गाँव की सफाई पर खर्च करें।
यह भी एक संयोग है कि 29 वर्ष की आयु में तथागत बुद्ध ने भी 29 वर्ष में गृह त्याग किया था. डेबू जी के हाथ में लाठी दुसरे हाथ में मिट्टी का भिक्षा पात्र और शरीर पर फटे-पुराने चिथड़ों को गांठ-गांठ कर चीवर जैसा बना पहन कर चलि दये. बाबा जब किसी बस्ती के पास से गुजरते तो गांव भर के आवारा कुत्ते उन पर टूट पड़ते बाबा उनसे बचने की कोशिश करते फिर भी वह लहू-लुहान हो हो ही जाते.. मौसम की मार से बचने को बाबा फटे-पुराने चिथड़े पूरे जिस्म पर लपेटे रहते, एक हाथ में लाठी दुसरे में मिट्टी का ठीकरा ऐसी विचित्र भेष-बुषा को देखकर कुत्तों का भौंकना काटना लाजिमी ही था।
कुत्तों द्वारा शोर होने पर बच्चों के झुण्ड चिल्लाते पागल आया. पागल आया. बाबा के इस भेष से लोगों को भी शंका होती वह उन्हें चोर-लुटे होने के भय से भगा देते… शुरू-शुरू में उन्हें यह समस्या रही लेकिन धीरे-धीरे स्थिती सामान्य होने लगी. क्षेत्रीय दलित समाज में डेबू जी का नाम नया नहीं था. लोग उन्हें भजन गायक और उपदेशक के रूप में पहले ही जानते थे. परंतु इस समय कुछ नया उनका लिबास ही था. एक दिन वह चलते-चलते एक दलित बस्ती में चले गये, लोगों ने उनको पहली नजर में भिखारी समझा, लेकिन नजदीक आने पर उन्हें पहचान लिया, पुरी बस्ती में कुड़े के ढेर थे, जिसके कारण बदबू उड़ रही थी।
मक्खियां भिनभिना रही थी. इधर-उधर सुअर लोट लगा रहे थे. डेबू बाबा बस्ती के दलितों को संबोधित करते हुए कहा भाइयों और बहनों आप अपने घरों के बगल में इस गन्दगी को देखो यह गन्दगी कई किस्म की बीमारियों का कारण बनती है भाई लोग ताश खेलते है, शराब पीने में लगे रहते है, बहनें इधर उधर बातों में अपना समय नष्ट करती हैं, जबकि हमें अपने आस-पास खाली समय में स्वच्छता अभियान चलना होगा. इसके साथ वह स्यवं जुट गये तो लोग भी उनका साथ देने लगे. शाम तक वस्ती चमक गई. इस प्रकार वह एक गांऴ की सफाई करते हुए दूसरे गांव की ओर चलते गये. वे गांव-गांव बस्ती चर्चित होने लगे. इस प्रकार अब वह गाडगेबाबा के नाम से पुकारे जाने लगे।
बाबा ने अपने जीवन में किसी को शिष्य नहीं बनाया था। जिन्होंने बाबा के मार्ग पर चलने का प्रयास किया, वह पत्थर से देवता बन गए। बाबा स्वयं भी एक जगह पर नहीं रहे। अखंड भ्रमण ही करते थे। उनका कहना था कि साधु चलता भला, गंगा बहती भली।बाबा के सहयोगियों में सभी जातियों के लोग थे। बाबा के कीर्तन में गरीब-श्रीमत् सभी लोग आते थे। पैसे वाले डिब्बे भर-भर कर रूपए लाते और दान कर भोजन करके चले जाते। कंगाल भूखे पेट आते और कीर्तन सुन कर चले जाते थे। बाबा को यह बात पसंद नहीं थी। सात दिन का नाम सप्ताह और आखिरी दिन अन्नदान (भंडारा) करने के लिए बाबा कहते थे, कबीर कहते थे-
कबीर कहे कमला को, दो बाता लिख लें।
कर साहेब की बंदगी और भूखे को कुछ दें।।
संत गाडगे जी की 13 दिसंबर 1956 को अचानक तबियत खराब हुई और 17 दिसंबर 1956 को बहुत ज्यादा खराब हुई, 19 दिसंबर 1956 को रात्रि 11 बजे अमरावती के लिए जब गाड़ी चली तो गाड़ी में बैठे सभी से बाबा ने गोपाला-गोपाला भजन करने के लिए कहा। जैसे ही बलगांव पिढ़ी नदी के पुल पर गाड़ी आई बाबा मध्य रात 12.30 बजे अर्थात 20 दिसंबर 1956 को ब्रह्मलीन हो गए। (इनपुट Jivani.org )