सच्चिदानंद जी को इस साल होली बिल्कुल इको-फ्रेंडली मनानी थी। उन्होंने पिछले साल की अपनी “गलती” से सीखा था, जब उनकी चाची ने उन्हें प्लास्टिक के गुब्बारों और केमिकल वाले रंगों का उपयोग करते हुए रंगे हाथ पकड़ लिया था। इस बार, उन्होंने प्रण लिया कि वे पूरी तरह पर्यावरण के प्रति सचेत रहेंगे, जैविक रंगों का उपयोग करेंगे और पानी की एक बूंद भी व्यर्थ नहीं करेंगे।
होली से एक हफ्ता पहले ही उन्होंने अपने मोहल्ले के व्हाट्सएप ग्रुप में लंबा-चौड़ा संदेश भेजा –
“प्रिय पड़ोसियों, इस बार हम सबको मिलकर पर्यावरण बचाना है। जल संरक्षण अत्यंत आवश्यक है। हमें सिंथेटिक रंगों और प्लास्टिक के गुब्बारों को छोड़कर प्राकृतिक रंगों को अपनाना चाहिए। आइए, इस बार एक नई मिसाल कायम करें और होली को पूरी तरह से इको-फ्रेंडली बनाएं।”
संदेश में सच्चिदानंद जी ने पांच मिनट का एक यूट्यूब लिंक भी डाला जिसमें बताया गया था कि कैसे घर में हल्दी, चुकंदर और पालक से सुंदर रंग बनाए जा सकते हैं। उन्हें पूरा भरोसा था कि इस साल उनका मुहल्ला होली का एक नया और आदर्श उदाहरण पेश करेगा।
होली के एक दिन पहले उन्होंने खुद अपने हाथों से हल्दी, पालक और चुकंदर के रंग बनाए। हल्दी के पाउडर में थोड़ा सा बेसन मिलाया ताकि रंग अच्छे से चिपके। पालक का पेस्ट बनाने के लिए उन्होंने मिक्सर का इस्तेमाल किया और चुकंदर के रस को सुखाकर लाल रंग तैयार किया। इस पूरे प्रोजेक्ट में तीन घंटे, दो जले हुए मिक्सर और पांच गंदे कपड़े खर्च हुए, लेकिन आखिरकार रंग तैयार हो गए।
हालांकि, हल्दी का रंग उनकी सफेद बनियान पर गिर गया, जो अब स्थायी रूप से पीली हो गई थी। उनके हाथ भी हल्दी के कारण ऐसे दिख रहे थे जैसे वे कराची हलवाई की दुकान पर काम कर रहे हों। लेकिन यह सब छोटे-मोटे बलिदान थे, आखिर पर्यावरण बचाने के लिए कुछ तो सहना ही पड़ेगा!
होली के दिन वे पूरे जोश में थे। एक थाली में अपने ‘इको-फ्रेंडली’ रंग सजाकर मोहल्ले में निकले। लेकिन जैसे ही वे गली में पहुँचे, उनकी आँखें फटी की फटी रह गईं। सामने वाले पियूष जी अपनी छत से पाँच लीटर की बाल्टी भरकर पानी फेंक रहे थे। रंग-बिरंगे गुब्बारों की बौछार हो रही थी। बच्चे पिचकारियाँ लिए ऐसे घूम रहे थे जैसे सेना के जवान मोर्चे पर हों।
सच्चिदानंद जी ने गहरी सांस ली और खुद को शांत किया। वे सीधे पियूष जी के पास पहुंचे –
“अरे भाई साहब, हमने तो तय किया था कि इस बार इको-फ्रेंडली होली मनाएँगे!”
पियूष जी हँसते हुए बोले, “अरे सचिदानंद जी, हम तो बहुत सावधान हैं! हमने तो इस बार टैंकर बुलवाकर पानी भरवाया है ताकि नल का पानी बर्बाद न हो।”
सच्चिदानंद जी अवाक् रह गए। उन्हें याद आया कि उन्होंने यह ‘महान विचार’ खुद पिछले साल दिया था कि पानी पहले से इकट्ठा कर लिया जाए ताकि नल न खुले रहें।
उधर, बिमला आंटी हाथ में गुलाल लिए खड़ी थीं। उन्होंने जब सचिदानंद जी को देखा, तो प्यार से उनके गालों पर गुलाल लगाया। गुलाल लगते ही सचिदानंद जी को छींकों की झड़ी लग गई। तभी किसी ने उनकी पीठ पर जोरदार झापड़ मारा, और उनके हाथ से उनकी इको-फ्रेंडली रंगों की थाली नीचे गिर गई। हल्दी और चुकंदर के रंग धूल में मिल गए।
इतने में कुछ बच्चों का झुंड आया, उनके हाथों में रंग-बिरंगे गुब्बारे थे। वे सब चिल्ला रहे थे –
“सच्चिदानंद अंकल, पकड़ो!”
और अगले ही पल एक ठंडे पानी से भरा गुब्बारा सीधे उनके सिर पर फटा। वे जब तक सँभलते, दूसरा गुब्बारा भी उनके गले से नीचे आ गया। उनकी पूरी इको-फ्रेंडली योजना वहीं धाराशायी हो गई।
“अरे, तुम लोगों को समझ नहीं आया? हमने इस बार प्लास्टिक के गुब्बारे नहीं फेंकने थे!” सच्चिदानंद जी ने रोष में कहा।
बच्चों ने मासूमियत से जवाब दिया, “अरे अंकल, ये प्लास्टिक के नहीं, बायोडिग्रेडेबल गुब्बारे हैं। मम्मी ने ऑनलाइन मंगवाए थे।”
सच्चिदानंद जी ने निराश होकर अपना सिर पकड़ लिया।
अब उनकी पूरी हालत खराब हो चुकी थी। चुकंदर का रंग उनकी सफेद शर्ट पर ऐसे दिख रहा था जैसे किसी ने उस पर खून के छींटे मार दिए हों। उनके चेहरे पर इतनी परतें चढ़ चुकी थीं कि वे खुद को शीशे में पहचान नहीं पा रहे थे।
आखिरकार, जब वे हारकर घर लौटे तो उनकी पत्नी ने देखते ही सवाल किया, “क्या हुआ? इको-फ्रेंडली होली का क्या हुआ?”
वे निराश स्वर में बोले, “होली तो होली होती है।”
और यह कहते हुए उन्होंने एक कप चाय ली और बालकनी में बैठ गए। सामने मोहल्ले के बच्चे रंगों से सराबोर होकर हँस-खेल रहे थे। सच में, होली तो होली होती है, चाहे कितनी भी ‘इको-फ्रेंडली’ हो।