विश्व कछुआ दिवस पर चंबल नदी से अच्छी खबर सामने आई है। दुनिया में लुप्त होने की कगार पर पहुंचे बटागुर कछुओं का कुनबा बढ़कर 500 हो गया है। इस साल भी जन्म लेकर चंबल की गोद में कछुए के करीब 600 बच्चे पहुंचे हैं। वन विभाग और टर्टल सर्वाइवल एलायंस (टीएसए) के प्रयासों से यह संभव हो सका है।
टीएसए के प्रोजेक्ट अफसर पवन पारीक ने बताया कि बटागुर कछुओं में साल और ढोर प्रजाति शामिल हैं। साल प्रजाति के कछुए सिर्फ चंबल नदी में बचे हैं, जबकि ढोर कछुए भी यहां काफी संख्या में हैं। रेंजर आरके सिंह राठौड़ ने बताया कि चंबल में कछुओं की दुर्लभ प्रजातियों के संरक्षण की मुहिम के सुखद परिणाम सामने आए हैं।
संरक्षित हो रहीं आठ प्रजातियां
चंबल नदी में कछुओं की आठ प्रजातियां संरक्षित हो रही हैं। इनमें साल, ढोर, सुंदरी, मोरपंखी, कटहवा, भूतकाथा, स्योत्तर, पचेड़ा शामिल हैं। वर्ष 2008 में टर्टल सर्वाइवल एलायंस ने चंबल में कछुओं के संरक्षण पर काम शुरू किया था।
गढ़ायता कछुआ संरक्षण केंद्र में बनाई हैचरी
इटावा और बाह रेंज से नेस्टिंग सीजन में टर्टल सर्वाइवल एलायंस की टीम अंडों को एकत्रित कर गढ़ायता कछुआ संरक्षण केंद्र में रखती हैं। टीएसए के प्रोजेक्ट अफसर पवन पारीक ने बताया कि इस साल 311 नेस्ट हैचरी में थे। दोनो रेंज के जिन घाटों से अंडे एकत्रित किए थे वहीं बच्चों को छोड़ दिया गया है।
रेंजर आरके सिंह राठौड़ ने बताया कि बाढ़, नदी किनारे पर कछवारी, चोरी छिपे होने वाले खनन और मछली पकड़ने को डाले गए जाल में फंसकर होने वाली मौत से कछुओं की आबादी तेजी से घटी थी।
वन विभाग के साथ टीएसए के जागरूकता अभियान से हालात सुधरे। नेस्टिंग से लेकर हैचिंग सीजन तक अंडों की रखवाली से संख्या बढ़ी है। उन्होंने बताया कि मांस और शक्तिवर्धक दवाओं के लिए होने वाली तस्करी को भी कड़ाई से रोका गया है।