महार सेना का शौर्य इस बात का प्रतीक था कि सदियों से जाति के नाम पर योद्धा कहलाने वालों पर आधुनिक प्रशिक्षण प्राप्त 500 महारों सेना 16000 पेशवा सेना पर भारीपड़ी । इस लड़ाई का जिक्र जेम्स ग्रांट डफ़ की किताब ‘ए हिस्टरी ऑफ़ द मराठाज़’ में भी मिलता है।
जिसके अनुसार, भीमा नदी के किनारे हुआ , ब्रिटिश अनुमानों के मुताबिक, इस लड़ाई में पेशवा के 500-600 सैनिक मारे गए थे बता दें कि भारत सरकार ने महार रेजिमेंट पर 1981 में स्टाम्प भी जारी किया था।
भीमा कोरेगांव महाराष्ट्र के पुणे जिले में है। इस छोटे से गांव से मराठा इतिहास जुड़ा है। 200 साल पहले यानी 1 जनवरी, 1818 को ईस्ट इंडिया कपंनी की सेना ने पेशवा की बड़ी सेना को कोरेगांव में हरा दिया था। पेशवा सेना का नेतुत्व बाजीराव के पास था I बाद में इस लड़ाई से दलितों को इतिहास में एक खास जगह मिली।
इस लड़ाई को लेकर दलित और मराठा समुदाय में लोगों के अलग-अलग तर्क हैं, कुछ जानकार मानते हैं कि महारों के लिए ये अंग्रेजों की नहीं बल्कि अपनी अस्मिता की लड़ाई थी। क्योंकि पेशवा शासक महारों से ‘अस्पृश्य’ व्यवहार करते थे।
कुछ इतिहासकार बताते हैं कि दलितों की इतनी बुरी दशा थी कि नगर में प्रवेश करते वक़्त उनके साथ बुरा और अमानवीय व्यवहार किया जाता था।
अगर यह लड़ाई महारों की अपनी अस्मिता की लड़ाई थी तब भी उनका शौर्य महान था। क्यूंकि जातीय आधार पर जिन्हे सूर वीर कहा गया जाता था उन्हें मात्र कुछ महार सैनिकों ने खदेड़ दिया। लेकिन फिर भी उनका शौर्यदिवस मानाने पर कथित जातिवादियों को समस्या होती है।
2018 का साल का इस आयोजन के लिए बेहद ख़ास था क्योंकि उस दिन भीमा कोरेगांव की लड़ाई के दो सौ साल पूरे हो रहे थे। पहली जनवरी को भीमा नदी के किनारे स्थित मेमोरियल के पास दिन के 12 बजे जब लोग अपने नायकों को श्रद्धांजलि देने इकट्ठा होने लगे तभी हिंसा भड़की।
पत्थरबाज़ी हुई और भीड़ ने खुले में खड़ी गाड़ियों को आग के हवाले कर दिया। स्थानीय पत्रकार ध्यानेश्वर मेडगुले ने बताते हैं, “कुछ ही देर में हालात बेक़ाबू हो गए. इलाक़े में बड़ी तादाद में लोग मौजूद थे और जल्द ही पुलिसवाले भीड़ की तुलना में कम पड़ गए. भगदड़ की स्थिति बन गई.”
इस घटना के बाद इस बात साफ है कि आज भी दलितों का शौर्य जातिवादियों को पचता नहीं है।
ब्रिटिश फ़ौज ने महारों को ट्रेनिंग दी और पेशवाई के ख़िलाफ़ लड़ने की प्रेरणा दी मराठा शक्ति के नाम पर जो ब्राह्मणों की पेशवाई थी ये लड़ाई दरअसल, उनके ख़िलाफ़ थी और महारों ने उन्हें हराया, ये मराठों के ख़िलाफ़ लड़ाई तो कतई नहीं थी
काम्बले कहते हैं कि महारों और मराठों के ख़िलाफ़ किसी तरह का मतभेद या झगड़ा था, ऐसा इतिहास में कहीं नहीं है. अगर ब्राह्मण छुआछूत ख़त्म कर देते तो शायद ये लड़ाई नहीं होती।