1997 में बिहार के लक्ष्मणपुर बाथे में 58 दलितों की हत्या का मामला हो, 2011 में हरियाणा का मिर्चपुर कांड हो या 2016 में गुजरात के उना में दलितों के साथ हिंसा का मामला, इन सभी मामलों के पीछे जो है वह है जातिवाद। इतना ही नहीं देश में सरकारी और ग़ैर-सरकारी संस्थाओं की रिपोर्टें इस तरफ़ इशारा करती हैं कि पुलिस सिस्टम में कमज़ोर तबकों को लेकर एक पूर्वाग्रह है और जाति उसका एक अहम हिस्सा है।
नेशनल दलित मूवमेंट फ़ॉर जस्टिस संस्था के राहुल सिंह कहते हैं कि अनुसूचित जाति के लोगों के लिए पहले कदम पर ही न्याय का रास्ता बंद कर दिया जाता है यानी उनकी शिकायत ही दर्ज नहीं होती। एससी/ एसटी एक्ट ये भी कहता है कि मामले की जांच 60 दिनों में पूरी हो जानी चाहिए और इसी वक़्त में चार्जशीट भी दाखिल हो जानी चाहिए. लेकिन अक्सर ऐसा हकीकत में नहीं दिखाई देता।
पुलिस एक पूर्वाग्रह रखती है कि फलां अपराध ये वाला समुदाय करता है ,उन्होंने वर्गीकरण कर रखा है कि कौन से अपराधी समुदाय हैं और कौन से समुदाय, कौन सा अपराध करते हैं.” राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट (2004) में भी सामने आई थी कि पुलिस के अंदर एक पूर्वाग्रह है कि दलित और आदिवासी जन्मजात आपराधिक प्रवृत्ति के होते हैं।
इसका उदाहरण आप इस बात से लगा सकते है की जब 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने डीनोटिफाइड ट्राइब के छह लोगों को बरी किया जिन्हें 10 साल पहले कोर्ट ने नासिक में डकैती, रेप और हत्या के मामले में फांसी की सज़ा दी थी। कोर्ट ने उन्हें बरी करते हुए कहा कि पुलिस ने उन पर झूठा मुक़दमा किया और असली गुनहगारों को जाने दिया. महाराष्ट्र सरकार को 5-5 लाख का मुआवज़ा देने का भी आदेश दिया।
उत्तर प्रदेश के हाथरस में एक दलित लड़की के गैंगरेप का मामला सबको याद है। उसी को लेकर बाराबंकी के एक भाजपा नेता रंजीत श्रीवास्तव का वीडियो सोशल मीडिया पर शेयर हो रहा है. जिसमें वो कह रहे हैं-
“लड़की ने लड़के को बुलाया होगा बाजरे के खेत में क्योंकि प्रेम प्रसंग था। सब बातें सोशल मीडिया पर भी हैं, चैनलों पर भी आ चुकी हैं. पकड़ ली गई होगी. अक्सर यही होता है खेतों में। ये जितनी लड़कियां इस तरह की मरती हैं, ये कुछ ही जगहों पर पाई जाती हैं.”
वोट-बैंक और नोट-बैंक के लुए मुस्लिम से प्रेम हिन्दू दलित पिछड़ों से नफरत
“सोनीपत में एक 11 साल की बच्ची के गैंगरेप में पुलिस की कार्रवाई के लिए भी हमें धरना देना पड़ा। बहुत सारे मामलों में देखा गया है कि जहां सवर्ण जाति के लोगों ने दलित बस्ती में आग लगाई हो तो पुलिस कहती है कि इन्होंने मुआवज़े के लिए खुद ही आग लगा ली “
ऐसे में सवाल है क्या नहुत सी पिछड़ी, दलित, आदिवासी, जातियां हिन्दू नहीं है। या फिर चुनावी राजनीती के लिए वसीम रिजवी से बने जीतेन्द्र बहादुर सिंह त्यागी को मंदिर के पुजारी यति नरसिंहानंद सरस्वती ने अपना भाई बता दिया।
अगर दूसरे धर्म से आये व्यक्ति को अपना भाई बता सकते है तो अपने धर्म के लोगो के साथ जब अत्याचार, बलात्कार, घर में आग लगा देना, घोड़ी चढाने पर हत्या और अंतर्जातीय विवाह पर नरसंहार होता है तो ये सभी हिन्दू भाई सामने क्यों नहीं आते है।
डासना मंदिर के महंत ने कहा कि उन्होंने वसीम रिजवी का धर्म परिवर्तन करवाने से पहले त्यागी समाज के प्रतिष्ठित लोगों को बुलाया। उनसे बातचीत करके ही वसीम को त्यागी समाज में शामिल कराया है। नरसिंहानंद सरस्वती महाराज ने कहा कि उनके पिता के 2 पुत्र थे उनमें से एक ने सन्यास ले लिया (स्वयं)। लेकिन अब उनके पिता के फिर से 2 पुत्र कहलाएंगे। एक उनका भाई और दूसरा जितेंद्र नारायाण सिंह त्यागी।
लेकिन इसी समज में आज भी हिन्दू धर्म के कई जातियों को पानी पीने तक नहीं दिया जाता है या बर्तन छूने पर उनके हाँथ पाँव तोड़ दिया जाता है ऐसी घटनाओ में सवर्ण चुप रहते है। यह एक गंभीर मुद्दा है एक हिन्दू से बैर मुस्लिम से प्रेम क्यों ?
(डाटा इनपुट बीबीसी )